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गुरुवार, २८ जुलै, २०२२

जूते की आत्मकथा

 जूते की आत्मकथा



 [ रूपरेखा : (1) आत्मकथा सुनाने की इच्छा (2) जन्म और दुकान के शो-केस में (3) जीवन-यात्रा (4) वर्तमान जीवन एवं दुर्दशा (5) अंतिम इच्छा ।] 

                      मै चमड़े का एक जूता हूँ। मेरा साथी भी मेरे पास में ही पड़ा है। हम दोनों सदा साथ-साथ रहते हैं और बहुत चल चुके हैं। आज हमारी जधान चलना चाहती है। हमारी आत्मकथा बहुत रोचक है। ध्यान से सुनिए। 

                     हमारा जन्म' बाटा शू कंपनी' के कारखाने में हुआ था। पहले मैं एक बड़ा-सा बढ़िया चमड़ा था। कारीगर ने इस चमड़े से काटकर हमें बनाया था। उसने बड़ी लगन से हमें तैयार किया। बनते समय हमें काफी पीड़ा सहन करनी पड़ी थी। लेकिन बनकर तैयार हो जाने पर हमारी शोभा निराली हो गई थी। क्या चमक भी हमारी.  

                     कुछ दिनों बाद हमें कारखाने से मुंबई भेज दिया गया। हम जूतों की एक शानदार दुकान में पहुँचे। हमें दुकान के शो-केस में रख दिया गया। एक दिन दुकान में एक नौजवान आया। हमारी जोड़ी उसे पसंद आ गई। उसने हमें खरीद लिया और अपने घर ले आया। 

                     उसी दिन से मेरी जीवन-यात्रा आरंभ हो गई। वह युवक हमें पहनकर बहुत रौब से बाहर निकलता। हमें भी बहुत गर्व होता. था। हम उसके पाँवों की रक्षा करते थे। उन्हें धूल गंदगी और काँचकील से बचाते थे। पर वह नौजवान बहुत कंजूस था। महीनों बीत जाते, पर वह हम पर पालिश तक नहीं कराता था। एक बार मेरी सिलाई टूट गई। फिर भी वह मुझे पहनता रहा। जब तल्ला निकलने की नौबत आ गई, तब कही जाकर उसने मुझे मोची से सिलवाया। उसे किसी वाहन में बैठते हुए हमने अपनी जिंदगी में नहीं देखा। बस में भी वह मजबूरी में ही सवार होता था। पैसे बचाने के चक्कर में वह अकसर पैदल ही चलता था। इसलिए सड़क पर घिस-घिस कर हमारी हालत बुरी हो गई। इस हालत में भी हम उसकी सेवा करते रहे। 

                    हमने लगातार ढाई-तीन साल तक इस युवक की सेवा की। पर अब हम जगह-जगह से फट चुके थे। पहनने लायक भी नहीं रहे। फिर भी यह युवक हमारा पिंड छोड़ने को तैयार नहीं था। मोची से जैसे तेसे हमें मिलवा कर अपना काम चलाए जा रहा था। पर एक दिन हमारी जीवन-शक्ति ने जवाब दे दिया। आखिरकार उसे नए जूते खरीदने पड़े। नए जूते आते ही उसने हमें घर से बाहर फेंक दिया। 

                  अब मैं यहाँ पड़ा-पड़ा सोच रहा हूँ कि वह युवक कितना स्वार्थी था। जब हमारी जरूरत नहीं रही, तो हमें घर से बाहर फेंक दिया।

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