एक टूटी हुई ऐनक की आत्मकथा
[ रूपरेखा : (1) बात सुनने का आग्रह (2) जन्म और बचपन (3) मालिक के साथ (4) दुर्दशा (5) निःस्वार्थ सेवा का आदर्श । ]
एक ऐनक को बोलते हुए देखकर अचरज मत कीजिए। दिल जब भर आता है, तो वाणी अपने आप फूट पड़ती है। मुझे फेंकने के पहले आप मेरी रामकहानी सुन लीजिए।
मेरी उम्र दस वर्ष की हो चुकी है। मेरा जन्म मुंबई के एक बड़े कारखाने में हुआ था। वहाँ दिनभर मशीनों की खटखट गूँजती रहती थी। मैं प्लास्टिक की एक सुंदर फ्रेम के रूप में बनकर तैयार हुई। मेरे साथ मेरी सैकड़ों बहनें भी तैयार की गई थी। एक दिन हमें चश्मे की एक दुकान में भेज दिया गया। वहाँ मुझे शो केस में रख दिया गया। मैं वहाँ बहुत खुश थी। अपने भाग्य पर इतरा रही थी। तभी एक सेठ जी वहाँ चश्मा बनवाने के लिए आए। मैं उन्हें पसंद आ गई। सेठजी ने कीमत चुकाकर मुझे खरीद लिया। दुकानदार ने कुछ ही दिनों में मुझमें दो गोल काँच बिठा दिए। अब तो मेरी सुंदरता देखते ही बनती थी।
मेरे मालिक सेठ जी मुझसे कसकर काम लेते थे। सुबह मुझे आँखों पर लगाकर वे अखबार पढ़ते थे, डाक में आई चिट्ठियाँ पढ़ते, अपने बही-खाते का हिसाब-किताब देखते। वे एक-एक आँकड़े पर घंटो नजर गड़ाए रहते। इसके कारण में थक जाती थी। सेठजी जब घर से बाहर निकलते तो मुझे आँखों पर लगाना न भूलते। एक तरह से मैं सेठ जी की जीवन संगिनी बन गई थी। सेठानी से भी ज्यादा वे मेरा ख्याल रखते थे।
लेकिन जीवनभर मैं उनका साथ न निभा सकी। एक दिन सेठ जी मुझे पलंग पर रख कर हाथ-मुँह धोने चले गए। इसी बीच उनके शरारती पोते ने मुझ पर जोर से पैर रख दिया। मेरा अंग-अंग चरमरा गया। मेरा एक तरफ का काँच टूट गया। मेरी एक टाँग टूट कर अलग हो गई। सेठ जी बहुत नाराज हुए। पर तोड़ने वाला उनका पोता था ! क्या करते? मन मार कर रह गए।
सेठ जी ने अब एक नया चश्मा बनवा लिया है। यह मुझसे भी ज्यादा सुंदर है। मुझे अब कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया है। मगर मुझे अपने भविष्य की जरा भी चिंता नहीं है। जो जन्म लेता है, एक दिन मरता जरूर है। मैं भी मिट्टी में मिल जाऊँगी। पर मेरी निःस्वार्थ सेवा का आदर्श सदा अमर रहे, यही मेरी आखिरी तमन्ना है।
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