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बुधवार, २७ जुलै, २०२२

एक भग्न मंदिर की आत्मकथा

 एक भग्न मंदिर की आत्मकथा 



रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) भक्तों द्वारा उपासना (3) स्वतंत्रता सेनानियों का आश्रय स्थल (4) वर्तमान स्थिति का कारण (5) स्वतंत्रता संग्राम में योगदान (6) व्यथित मनोदशा (7) हार्दिक इच्छा ।] 

                 मैं इस पहाड़ी को उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित एक भग्न मंदिर हूँ। मैं कभी दुर्गा माता का एक भव्य मंदिर था। मनोकामना पूरी होने पर एक सेठ ने मेरा निर्माण करवाया था। मैं पूरी तरह संगमरमर से बना था। एक प्रसिद्ध शिल्पकार से दुर्गा माता को बनवाई गई थी। सेठ ने उसे यहाँ लाकर शुभ मुहूर्त में स्थापित किया था। प्रतिदिन सुबह-शाम माता की आरती होती थी। स्वर गूँज उठते । 

               मंदिर से उत्तर की तरफ एक तालाब था, जिसमें स्नान कर भक्तगण यहाँ देवी जी के दर्शन करने आते थे। नवरात्रि में यहाँ भक्तों की बहुत भीड़ रहती थी। श्रद्धालु और दुःखी पीड़ित लोग यहाँ बैठकर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे। मैं भी सभी को सुखी देखना चाहता था। 

              आजादी की लड़ाई लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानी मेरे पास आकर काफी देर तक बैठते, मत्था टेकते और युद्ध में विजय की कामना करते। चैत्र मास को प्रतिपदा को यहाँ भीषण युद्ध हुआ। आजादी के मतवाले वीर स्वतंत्रता सेनानियों ने मेरी ओट लेकर अंग्रेजों को छटी का दूध याद करा दिया। इस युद्ध में अंग्रेजों को हार हुई। किंतु पराजय से बौखलाए अंग्रेजों ने मुझे अपनी हार का कारण मानकर भग्न करवा दिया। 

                 परोक्ष रूप से ही सही, स्वतंत्रता सेनानियों की सहायता कर स्वाधीनता-यज्ञ में मैंने भी अपनी आहुति दी थी। किंतु खेद है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी आज तक किसी ने मेरे पुनर्निर्माण का विचार नहीं किया। इतना ही नहीं, बहुतों को तो यह भी नहीं मालूम कि यहाँ कभी कोई मंदिर था। उत्तरी छोर पर स्थित तालाब भी सूख गया है। अब किसान वहाँ खेती करते हैं।

                  मेरी भग्न दीवारों पर चढ़कर बच्चे उछल कूद करते हैं। दिन में उनकी किलकारियों यहाँ गूँजती रहती हैं। किंतु रात में यहाँ बेहद सन्नाटा छा जाता है। 

                 कभी-कभी हल चलाकर आए थके किसान मेरी भरत दीवारों की ओट में बैठकर विश्राम और करते हैं। कभी-कभी सोचता हूँ कि भक्तों की भीड़ से गुलजार रहने वाला यह स्थान क्या कभी आबाद नहीं होगा ? क्या मेरी सुधि लेने वाला अब कोई भक्त नहीं रहा? क्या अब हमेशा मुझे इस बियाबान में यो हो अकेलेपन का जीवन जीना पड़ेगा ? क्या यह मेरा कर्मफल है ? खुशी की बात है कि सरकार ने इस पहाड़ी को तोड़कर अब यहाँ एक बड़ा अस्पताल बनवाने की घोषणा की है। किंतु सरकारी घोषणाओं का क्या ? घोषणा के दो वर्ष बीत जाने के बाद भी अभी तक कुछ नहीं हुआ। 

                   चाहे मंदिर के रूप में मेरा नवनिर्माण हो, चाहे मुझे तोड़कर अस्पताल बनवा दिया जाए, मैं हर रूप में मानवमात्र के हित से जुड़ा रहना चाहता हूँ।

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