दहेज-प्रथा समाज का कलंक अथवा दहेज-प्रथा एक अभिशाप
दहेज प्रथा हमारे समाज के माथे पर लगे कर्तक के समान है। इस प्रथा के कारण महिलाओं को तरह-तरह की यातनाएँ सहन करनी पड़ती हैं। वर पक्ष की माँग के अनुसार दहेज न मिलने पर बहुओं की हत्या तक कर दी जाती है।
शायद ही कोई दिन ऐसा जाता है, जब किसी न किसी समाचारपत्र में एक न एक दहेज-मृत्यु का समाचार सीता को जिंदा जलाया गया, तो कहाँ कोई नववधू जिंदगी से तंग आकर स्वयं जल मेरी किसी ने जहर खा लिया, किसी ने गाँव के कुएं में छलांग लगा दी, तो किसी ने छत से कूदकर प्राण त्याग दिए।
साधनहीन माता-पिता असहाय होकर अपने भाग्य को कोसते रह जाते हैं। इसके विपरीत साधनसंपन्न लोग बड़ी चतुराई और मक्कारी से शादी-ब्याह के अवसरों पर लेन-देन कर लेते हैं। दहेज भी देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का ही एक भयानक रूप है।
जितनी तेजी से महँगाई बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से दहेज की दर भी बढ़ रही है। आज दहेज देना और लेना प्रतिष्ठा का विषय समझा जाने लगा है। दहेज-व्यापार में आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्ति की कमर ही टूट जाती है। समाज के कर्णधार दहेज-प्रथा के विरुद्ध भाषण देते हैं, पर मनमाना दहेज लेने में वे भी नहीं हिचकते।
जितनी रकम दामाद को खरीदने में खर्च की जाती है, उतनी रकम में लड़की को सुशिक्षित कर स्वावलंबी बनाया जा सकता है। स्वावलंबी होकर वह स्वाभिमान की सुरक्षित जिंदगी जी सकती है। यह समाज में समुचित सम्मान भी प्राप्त कर सकती है।
दहेज-प्रथा ने मनुष्य को विक्रय की वस्तु बना दिया है। यदि कोई युवक सरकारी अफसर, डॉक्टर अथवा इंजीनियर है, सी उसके लिए कन्यावाले इस तरह टूट पड़ते हैं, जैसे किसी बहुमूल्य चीज को नीलामी हो रही हो। लोगों की यह मानसिकता दहेज प्रथा को बढ़ावा देने वाली है।
देश में दहेज विरोधी कानून बनाए गए हैं। परंतु इस कानून पर ठीक से अमल नहीं हो रहा है। कानून चाहे कितने ही कठोर क्यों न हों, वे लोगों की मानसिकता नहीं बदल सकते।
आदमी आदमी की व्यथा समझे तथा लोग दहेज की विभीषिका का अंत करने का निश्चय करें। तभी समाज के माथे पर लगी दहेज-प्रथा की कालिमा मिट सकती है।
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