आराम की कीमत
एक बार एक जंगली गधा एक गाँव के पास पहुँच गया। वहाँ उसकी भेंट एक पालतू गधे से हो गई। पालतू गधे को अच्छा खाना मिलता था। उसे अच्छी तरह रखा जाता था। इससे वह खूब मोटा-ताजा हो गया था। उसे देखकर जंगली गधे को ईर्ष्या हुई। उसने पालतू गधे को बधाई देते हुए कहा, "भाई, तुम बहुत भाग्यवान हो। तुम्हें बहुत अच्छा मालिक मिला है। वह तुम्हारा बहुत ख्याल रखता है। मुझे देखो, दिनभर इधर-उधर भटकता रहता हूँ। न खाने का ठिकाना है, न रहने का। " जंगली गधे की बात सुनकर पालतू गधा फूला न समाया। उसे जंगली गधे पर दया आई अगले दिन पालतू गधे की पीठ पर मालिक ने खूब बोझ लाद दिया। मालिक डंडा लेकर गधे के पीछे-पीछे चल पड़ा। यदि गधा कहीं रुकता तो मालिक उसकी पीठ पर डंडा जमा देता। मालिक के डंडे खाकर गधा बहुत दुःखी हो रहा लगा, यह मालिक मुझे अपने मतलब के लिए ही अच्छा अच्छा खिलाता है। इसके यहाँ रहकर मुझे जो ऐश-आराम मिलता है. गधा सोचने डंडे की यह मार उसी की कीमत है। जंगली गधे को भले ऐसा आराम नहीं मिलता, पर उसे ऐसी मार भी तो नहीं खानी पड़ती ! जो मिला सो खाकर वह संतुष्ट रहता है। सचमुच, जंगली गधा मुझसे ज्यादा सुखी है। सीख: गुलामी के ऐश-आराम के बजाय आजादी की सूखी रोटी ज्यादा अच्छी है।
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